बुधवार, 15 अगस्त 2018

ग़ज़ल

कभी-कभी कुछ लिखता हूँ....आज शहीदों को सलाम करने के बाद ....स्वतंत्रता दिवस की शाम को दिल करता था कुछ उल्लास से भरा लिखूं .......लाख कोशिश की ......पर अन्दर का दर्द ही तो कविता बनती है। 
जय नारायण सिंह, दन्तेवाड़ा (छ.ग.)

तवायफ़ और सियासत में ये फर्क है यारों
तवायफ़ रिज्क से पर सियासत लुट खाती है

बड़ी रंगीन तबीयत है वतन में इस खादी की
हादसों का मजमा लगा पूरा लुत्फ़ उठाती है

छीन कर रोटी हम मुफलिसों की जलालत से
हमारी बेबसी को जहालत इल्जाम लगाती है

सूखे होंठों और भूखे आँखों के हर प्रश्न पर ही
सियासत नई बगावत का इल्जाम लगाती है

किताबों में रिवाजों में कायदों का लहू बिखरा
तमगों औ तिजोरी का बस ये भूख मिटाती है

पसीने की बूंद देखकर चमके बस इनके आँखे
मेहनत से थके कांधो पर ये बाज़ार उगाती है

तहरीरों वादों और इरादों का कागजी इन्कलाब
रहनुमाओं के उगाल से हर नाली बजबजाती है

जेहनो में मुद्दे उगाती है सियासत बेख़ौफ़ नादाँ
पर अश्क-ओ-भूख भी पत्थरों में आग लगती है