संकलनकर्त्ता-शिवशंकर श्रीवास्तव
यह असाधारण सत्य है
कि छत्तीसगढ राज्य का बस्तर क्षेत्र अगर किसी एक व्यक्ति को अपनी
साहित्यिक-सांस्कृतिक पहचान के रूप में जानता... है तो वह लाला जगदलपुरी हैं।
तिरानबे वर्ष की आयु, अत्यधिक क्षीण काया तथा
लगभग झुक चुकी कमर के बाद भी लाला जी अपनी मद्धम हो चुकी आँख को किसी किताब में
गडाये आज भी देखे जाते हैं। अब एक छोटे से कमरे में सीमित दण्डकारण्य के इस ऋषि का
जीवन असाधारण एवं अनुकरणीय रहा है। लाला जगदलपुरी दो व्यवस्थाओं के प्रतिनिधि हैं;
उन्होंने राजतंत्र को लोकतंत्र में बदलते देखा तथा वे बस्तर में हुई
हर उथलपुथल को अपनी पैनी निगाह से जाँचते-परखते तथा शब्दबद्ध करते रहे। वह आदिम
भाषा हो या कि उनका लोक जीवन लाला जी से बेहतर और निर्पेक्ष कार्य अब तक किसी नें
नहीं किया है। डोकरीघाट पारा का कवि निवास लाला जगदलपुरी के कारण एक पर्यटन स्थल
बना हुआ है तथा एसा कोई बुद्धिजीवी नहीं जो बस्तर पर अपनी समझ विकसित करना चाहता
हो वह लाला जी के चरण-स्पर्श करने न पहुँचे। लाला जी की व्याख्या उनका ही एक शेर
बखूबी करता है -
एक गुमसुम शाल वन सा
समय कट जाता,
विगति का हर संस्करण
अब तक सुरक्षित है।
मिट गया संघर्ष में
सबकुछ यहाँ लेकिन,
गीतधर्मी आचरण अब तक
सुरक्षित है।
(मिमियाती ज़िन्दगी दहाड़ते
परिवेश – 1983) रियासत कालीन बस्तर में राजा भैरमदेव के समय
में दुर्ग क्षेत्र से चार परिवार विस्थापित हो कर बस्तर आये थे। इन परिवारों के
मुखिया थे - लोकनाथ, बाला प्रसाद, मूरत
सिंह और दुर्गा प्रसाद। इन्ही में से एक परिवार जिसके मुखिया श्री लोकनाथ बैदार थे
वे शासन की कृषि आय-व्यय का हिसाब रखने का कार्य करने लगे। उनके ही पोते के रूप
में श्री लाला जगदलपुरी का जन्म 17 दिसम्बर 1920 को जगदलपुर में हुआ था। लाला जी के पिता का नाम श्री रामलाल श्रीवास्तव
तथा माता का नाम श्रीमती जीराबाई था। लाला जी तब बहुत छोटे थे जब पिता का साया
उनके सिर से उठ गया तथा माँ के उपर ही दो छोटे भाईयों व एक बहन के पालन-पोषण का
दायित्व आ गया। लाला जी के बचपन की तलाश करने पर जानकारी मिली कि जगदलपुर में
बालाजी के मंदिर के निकट बालातरई जलाशय में एक बार लाला जी डूबने लगे थे; यह हमारा सौभाग्य कि बहुत पानी पी चुकने के बाद भी वे बचा लिये गये। लाला
जी का लेखन कर्म 1936 में लगभग सोलह वर्ष की आयु से प्रारम्भ
हो गया था। लाला जी मूल रूप से कवि हैं। उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं – मिमियाती ज़िन्दगी दहाडते परिवेश (1983); पड़ाव (1992);
हमसफर (1986) आँचलिक कवितायें (2005); ज़िन्दगी के लिये जूझती ग़ज़लें तथा गीत धन्वा (2011)। लाला जगदलपुरी के लोक कथा संग्रह हैं – हल्बी लोक
कथाएँ (1972); बस्तर की लोक कथाएँ (1989); वन कुमार और अन्य लोक कथाएँ (1990); बस्तर की मौखिक
कथाएँ (1991)। उन्होंने अनुवाद पर भी कार्य किया है तथा
प्रमुख प्रकाशित अनुवाद हैं – हल्बी पंचतंत्र (1971);
प्रेमचन्द चो बारा कहानी (1984); बुआ चो
चीठीमन (1988); रामकथा (1991) आदि।
लाला जी नें बस्तर के इतिहास तथा संस्कृति को भी पुस्तकबद्ध किया है जिनमें प्रमुख
हैं – बस्तर: इतिहास एवं संस्कृति (1994); बस्तर: लोक कला साहित्य प्रसंग (2003) तथा बस्तर की
लोकोक्तियाँ (2008)। यह उल्लेखनीय है कि लाला जगदलपुरी का
बहुत सा कार्य अभी अप्रकाशित है तथा दुर्भाग्य वश कई महत्वपूर्ण कार्य चोरी कर
लिये गये। यह 1971 की बात है जब लोक-कथाओं की एक हस्तलिखित
पाण्डुलिपि को अपने अध्ययन कक्ष में ही एक स्टूल पर रख कर लाला जी किसी कार्य से
बाहर गये थे कि एक गाय नें यह सारा अद्भुत लेखन चर लिया था। जो खो गया अफसोस उससे
अधिक यह है कि उनका जो उपलब्ध है वह भी हमारी लापरवाही से कहीं खो न जाये; आज भी लाला जगदलपुरी की अनेक पाण्डुलिपियाँ अ-प्रकाशित हैं किंतु हिन्दी
जगत इतना ही सहिष्णु व अच्छे साहित्य का प्रकाशनिच्छुक होता तो वास्तविक
प्रतिभायें और उनके कार्य ही मुख्यधारा कहलाते।
लाला जगदलपुरी जी के
कार्यों व प्रकाशनों की फेरहिस्त यहीं समाप्त नहीं होती अपितु उनकी रचनायें कई
सामूहिक संकलनों में भी उपस्थित हैं जिसमें समवांय, पूरी रंगत के साथ, लहरें, इन्द्रावती,
हिन्दी का बालगीत साहित्य, सुराज, छत्तीसगढी काव्य संकलन, गुलदस्ता, स्वरसंगम, मध्यप्रदेश की लोककथायें आदि प्रमुख हैं।
लाला जी की रचनायें देश की अनेकों प्रमुख पत्रिकाओं/समाचार पत्रों में भी स्थान
बनाती रही हैं जिनमें नवनीत, कादम्बरी, श्री वेंकटेश्वर समाचार, देशबन्धु, दण्डकारण्य, युगधर्म, स्वदेश,
नई-दुनिया, राजस्थान पत्रिका, अमृत संदेश, बाल सखा, बालभारती,
पान्चजन्य, रंग, ठिठोली,
आदि सम्मिलित हैं। लाला जगदलपुरी नें क्षेत्रीय जनजातियों की
बोलियों एवं उसके व्याकरण पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। लाला जगदलपुरी को कई
सम्मान भी मिले जिनमें मध्यप्रदेश लेखक संघ प्रदत्त “अक्षर
आदित्य सम्मान” तथा छत्तीसगढ शासन प्रदत्त “पं. सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मान’ प्रमुख है।
लाला जी को अनेको अन्य संस्थाओं नें भी सम्मानित किया है जिसमें बख्शी सृजन पीठ,
भिलाई; बाल कल्याण संस्थान, कानपुर; पड़ाव प्रकाशन, भोपाल
आदि सम्मिलित है। यहाँ 1987 की जगदलपुर सीरासार में घटित उस
अविस्मरणीय घटना को उल्लेखित करना महत्वपूर्ण होगा हब शानी को को सम्मानित किया जा
रहा था। शानी जी स्वयं हार ले कर लाला जी के पास आ पहुँचे और उनके गले में डाल
दिया; यह एक शिष्य का गुरु को दिया गया वह सम्मान था जिसका
कोई मूल्य नहीं; जिसकी कोई उपमा भी नहीं हो सकती।
केवल इतनी ही
व्याख्या से लाला जी का व्यक्तित्व विश्लेषित नहीं हो जाता। वे नाटककार एवं
रंगकर्मी भी हैं। 1939 में जगदलपुरे में गठित
बाल समाज नाम की नाट्य संस्था का नाम बदल कर 1940 में
सत्यविजय थियेट्रिकल सोसाईटी रख दिया गया। इस ससंथा द्वारा मंचित लाला जी के
प्रमुख नाटक थे – पागल तथा अपनी लाज। लाला जी नें इस संस्था
द्वारा मंचित विभिन्न नाटकों में अभिनय भी किया है। 1949 में
सीरासार चौक में सार्वजनिक गणेशोत्सव के तहत लाला जगदलपुरी द्वारा रचित तथा अभिनित
नाटक “अपनी लाज” विशेष चर्चित रहा था।
लाला जी बस्तर अंचल के प्रारंभिक पत्रकारों में भी रहे हैं। वर्ष 1948 –
1950 तल लाला जी नें दुर्ग से पं. केदारनाथ झा चन्द्र के हिन्दी
साप्ताहित “ज़िन्दगी” के लिये बस्तर
संवाददाता के रूप में भी कार्य किया है। उन्होंने हिन्दी पाक्षिक अंगारा का
प्रकाशन 1950 में आरंभ किया जिसका अंतिम अंक 1972 में आया था। अंगारा में कभी ख्यातिनाम साहित्यकार गुलशेर अहमद खां शानी
की कहानियाँ भी प्रकाशित हुई हैं; उल्लेखनीय है कि शानी भी
लालाजी का एक गुरु की तरह सम्मान करते थे। लाला जगदलपुरी 1951 में अर्धसाप्ताहिक पत्र “राष्ट्रबंधु” के बस्तर संवाददाता भी रहे। समय समय पर वे इलाहाद से प्रकाशित “लीडर”; कलकत्ता से प्रकाशित “दैनिक
विश्वमित्र” रायपुर से प्रकाशित “युगधर्म”
के बस्तर संवादवाता रहे हैं। लालाजी 1984 में
देवनागरी लिपि में निकलने वाली सम्पूर्ण हलबी पत्रिका “बस्तरिया”
का सम्पादन प्रारंभ किया जो इस अंचल में अपनी तरह का अनूठा और पहली
बार किया गया प्रयोग था। लाला जी न केवल स्थानीय रचनाकारों व आदिम समाज की लोक
चेतना को इस पत्रिका में स्थान देते थे अपितु केदारनाथ अग्रवाल, अरुणकमल, गोरख पाण्डेय और निर्मल वर्मा जैसे
साहित्यकारों की रचनाओं का हलबी में अनुवाद भी प्रकाशित किय जाता था। एसा अभिनव
प्रयोग एक मिसाल है; तथा यह जनजातीय समाज और मुख्यधारा के
बीच संवाद की एक कडी था जिसमें संवेदनाओं के आदान प्रदान की गुंजाईश भी थी और
संघर्षरत रहने की प्रेरणा भी अंतर्निहित थी।
लाला जगदलपुरी से
जुडे हर व्यक्ति के अपने अपने संस्मरण है तथा सभी अविस्मरणीय व प्रेरणास्पद। लाला
जगदलपुरी के लिये तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह नें शासकीय सहायता का प्रावधान
किया था जिसे बाद में आजीवन दिये जाने की घोषणा भी की गयी थी। आश्चर्य है कि
मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह शासन नें 1998 में यह सहायता बिना किसी पूर्व सूचना के तब बंद करवा दी; जिस दौरान उन्हें इसकी सर्वाधिक आवश्यकता थी। लाला जी नें न तो इस सहायता
की याचना की थी न ही इसे बंद किये जाने के बाद किसी तरह का पत्र व्यवहार किया। यह
घटना केवल इतना बताती है कि राजनीति अपने साहित्यकारों के प्रति किस तरह असहिष्णु
हो सकती है। लाला जी की सादगी को याद करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार हृषिकेष सुलभ एक
घटना का बहुधा जिक्र करते हैं। उन दिनों मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह जगदलपुर आये थे
तथा अपने तय कार्यक्रम को अचानक बदलते हुए उन्होंने लाला जगदलपुरी से मिलना
निश्चित किया। मुख्यमंत्री की गाडियों का काफिला डोकरीघाट पारा के लिये मुड गया।
लाला जी घर में टीन के डब्बे से लाई निकाल कर खा रहे थे और उन्होंने उसी सादगी से
मुख्यमंत्री को भी लाई खिलाई। लाला जी इसी तरह की सादगी की प्रतिमूर्ति हैं। आज
उम्र के चौरानबे वसंत वे देख चुके हैं। कार्य करने की धुन में वे अविवाहित ही रहे।
जगदलपुर की पहचान डोकरीनिवास पारा का कवि निवास अब लाला जगदलपुरी के भाई व उनके
बच्चों की तरक्की के साथ ही एक बडे पक्के मकान में बदल गया है तथापि लाला जी घर के
साथ ही लगे एक कक्ष में अत्यधिक सादगी से रह रहे हैं। लाला जी अब ठीक से सुन नहीं
पाते, नज़रें भी कमजोर हो गयी हैं। भावुकता अब भी उतनी ही है;
हाल ही में जब मैं उनसे मिला था तो वे अपने जीवन के एकाकीपन से
क्षुब्ध थे तथा उनकी आँखें बात करते हुए कई बार नम हो गयीं। लाला जगदलपुरी के
कार्यों, उपलब्धियों व जीवन मूल्यों को देखते हुए उन्हें अब
तक पद्म पुरस्कारों का न मिलना दुर्भाग्यपूर्ण है। लाला जगदलपुरी को पद्मश्री
प्रदान करने माँग अब कई स्तरों पर उठने लगी है; यदि सरकार इस
दिशा में प्रयास करती है तो यह बस्तर क्षेत्र को गंभीरता से संज्ञान में लेने जैसा
कार्य कहा जायेगा चूंकि बस्तर और लाला जगदलपुरी पर्यायवाची शब्द हैं। लाला जगदलपुरी जी का
देहान्त 14 अगस्त 2013 को हो गया है। साभार
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