सोमवार, 20 मार्च 2017

कविता-घूमता है बस्तर भी

पूनम विश्वकर्मा वासम, बीजापुर (छत्‍तीसगढ़)
घूमता है बस्तर भी...
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पृथ्वी घूमती है अपनी धुरी पर 
कि पृथ्वी का घूमना तय क्रम है 
अँधेरे के बाद उजाले के लिए
कि घूमती है पृथ्वी तो घूमता है
संग-संग बस्तर भी
पृथ्वी की धुरी पर !

पृथ्वी घूमती है अपनी धुरी पर तेजी से 
कि घूमता है बस्तर भी उतनी ही तेजी से
इसकीउसकी तिज़ोरी में
गणतंत्र का उपहास उड़ाता,काले धन की तरह 
छिपता-छिपाता ।

पहाड़ों की तलहटी और जंगलों की ओट से 
जब भी झांकतादबोच लिया जाता है
किसी मेमने की तरह !

पृथ्वी घूमती है अपनी धुरी पर 
कि घूमता है बस्तर भी
इसकीउसकी कहानियों में 
चापड़ालांदासल्फ़ी घोटुलचित्रकूट के 
बहते पानी में बनती इंद्रधनुष की 'परछाइयों' सा
जब भी कोशिश की बस्तर ने
सूरज से सीधे सांठ-गाँठ की...
निचोड़कर सारा रस
तेंदूसालबीज की टहनियों पर तब-तब
टाँग दिया गया बस्तर को सूखने के लिए !

पृथ्वी घूमती है अपनी धुरी पर 
कि घूमता है बस्तर भी देश-विदेश में
उतनी ही तेजी से 
किसी अजायब घर की तरह... 
जिसे देखा ,सुना और पढ़ा तो जा सकता है 
किसी रोचक किस्से-कहानी में 
बिना कुछ कहे निःशब्द होकर !

पृथ्वी घूमती है अपनी धुरी पर
कि घूमता है बस्तर भी 
अपने सीने में छुपाये पक्षपात का ख़ूनी खंज़र !
न जाने वह कौन सी ओजन परत है... 
जिसने ढक रखा है 
बस्तर के हिस्से का
सारा उजला सबेरा ?